13
“सुनो, मैं यह सब कुछ अपनी आँख से देख चुका,
और अपने कान से सुन चुका, और समझ भी चुका हूँ।
जो कुछ तुम जानते हो वह मैं भी जानता हूँ;
मैं तुम लोगों से कुछ कम नहीं हूँ।
मैं तो सर्वशक्तिमान से बातें करूँगा,
और मेरी अभिलाषा परमेश्वर से वाद-विवाद करने की है।
परन्तु तुम लोग झूठी बात के गढ़नेवाले हो;
तुम सब के सब निकम्मे वैद्य हो*
भला होता, कि तुम बिल्कुल चुप रहते,
और इससे तुम बुद्धिमान ठहरते।
मेरा विवाद सुनो,
और मेरी विनती की बातों पर कान लगाओ।
क्या तुम परमेश्वर के निमित्त टेढ़ी बातें कहोगे,
और उसके पक्ष में कपट से बोलोगे?
क्या तुम उसका पक्षपात करोगे?
और परमेश्वर के लिये मुकद्दमा चलाओगे।
क्या यह भला होगा, कि वह तुम को जाँचे?
क्या जैसा कोई मनुष्य को धोखा दे,
वैसा ही तुम क्या उसको भी धोखा दोगे?
10 यदि तुम छिपकर पक्षपात करो,
तो वह निश्चय तुम को डाँटेगा।
11 क्या तुम उसके माहात्म्य से भय न खाओगे?
क्या उसका डर तुम्हारे मन में न समाएगा?
12 तुम्हारे स्मरणयोग्य नीतिवचन राख के समान हैं;
तुम्हारे गढ़ मिट्टी ही के ठहरे हैं।
13 “मुझसे बात करना छोड़ो, कि मैं भी कुछ कहने पाऊँ;
फिर मुझ पर जो चाहे वह आ पड़े।
14 मैं क्यों अपना माँस अपने दाँतों से चबाऊँ?
और क्यों अपना प्राण हथेली पर रखूँ?
15  वह मुझे घात करेगा, मुझे कुछ आशा नहीं;
तो भी मैं अपनी चाल-चलन का पक्ष लूँगा।
16 और यह ही मेरे बचाव का कारण होगा, कि
भक्तिहीन जन उसके सामने नहीं जा सकता।
17 चित्त लगाकर मेरी बात सुनो,
और मेरी विनती तुम्हारे कान में पड़े।
18 देखो, मैंने अपने मुकद्दमे की पूरी तैयारी की है;
मुझे निश्चय है कि मैं निर्दोष ठहरूँगा।
19 कौन है जो मुझसे मुकद्दमा लड़ सकेगा?
ऐसा कोई पाया जाए, तो मैं चुप होकर प्राण छोड़ूँगा।
20 दो ही काम मेरे लिए कर,
तब मैं तुझ से नहीं छिपूँगाः
21 अपनी ताड़ना मुझसे दूर कर ले,
और अपने भय से मुझे भयभीत न कर।
22 तब तेरे बुलाने पर मैं बोलूँगा;
या मैं प्रश्न करूँगा, और तू मुझे उत्तर दे।
23 मुझसे कितने अधर्म के काम और पाप हुए हैं?
मेरे अपराध और पाप मुझे जता दे।
24 तू किस कारण अपना मुँह फेर लेता है,
और मुझे अपना शत्रु गिनता है?
25 क्या तू उड़ते हुए पत्ते को भी कँपाएगा?
और सूखे डंठल के पीछे पड़ेगा?
26 तू मेरे लिये कठिन दुःखों की आज्ञा देता है,
और मेरी जवानी के अधर्म का फल मुझे भुगता देता है।
27 और मेरे पाँवों को काठ में ठोंकता,
और मेरी सारी चाल-चलन देखता रहता है;
और मेरे पाँवों की चारों ओर सीमा बाँध लेता है।
28 और मैं सड़ी-गली वस्तु के तुल्य हूँ जो नाश
हो जाती है, और कीड़ा खाए कपड़े के तुल्य हूँ।
* 13:4 13:4 तुम सब के सब निकम्मे वैद्य हो: उसके कहने का अभिप्राय था कि वे उसे शान्ति देने तो आए थे परन्तु उन्होंने जो कहा उसमें शान्ति देनेवाली तो कोई बात भी नहीं थी। वे रोगी के पास भेजे हुए वैद्द्यों के सदृश्य थे जो उसके पास आकर कुछ नहीं कर पाए। 13:15 13:15 वह मुझे घात करेगा: परमेश्वर मेरे दु:खों और कष्टों को इतना बढ़ा दे कि मैं जीवित न रह पाऊँ। मैं देख सकता हूँ कि मैं आपदाओं के तीव्रता के सामने हूँ, परन्तु मैं फिर भी उनका सामना करने को तैयार हूँ। 13:26 13:26 मेरी जवानी के अधर्म का फल: मैंने अपनी युवावस्था में जो अपराध किए। अब वह शिकायत करता है कि परमेश्वर उन सब अपराधों को स्मरण करता है जो उसने पहले के दिनों में किए थे।