कुरिन्थियों के नाम पौलुस प्रेरित की पहली पत्री
लेखक
पौलुस को इस पुस्तक का लेखक स्वीकार किया गया (1 कुरि. 1:1-2; 16:21)। इसे पौलुस का पत्र भी कहा जाता है। पौलुस जब इफिसुस नगर में था या वहाँ पहुँचने से पूर्व पौलुस ने यह पत्र कुरिन्थ नगर की कलीसिया को लिखा था। यह पत्र उसके प्रथम पत्र के बाद लिखा गया था (5:10-11)। उस पत्र को कुरिन्थ की कलीसिया ने गलत समझा था। दुर्भाग्य से वह पत्र खो गया है। इस प्रथम पत्र की विषयवस्तु अज्ञात है। यह पत्र पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया द्वारा उसे लिखे गये पत्र के उत्तर में लिखा था। अति सम्भव है कि उन्होंने उस प्रथम पत्र के उत्तर में पौलुस को एक पत्र लिखा था।
लेखन तिथि एवं स्थान
लगभग ई.स. 55 - 56
यह पत्र इफिसुस नगर से लिखा गया था। (1 कुरि. 16:8)
प्रापक
पौलुस के इस पत्र के अपेक्षित पाठक थे, कुरिन्थ नगर में परमेश्वर की कलीसिया के सदस्य (1 कुरि. 1:2)। परन्तु पौलुस यह भी लिखता है, “और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और हमारे प्रभु यीशु मसीह के नाम से प्रार्थना करते हैं।” (1:2)
उद्देश्य
पौलुस को कुरिन्थ की कलीसिया की वर्तमान परिस्थितियों की जानकारी अनेक स्रोतों से प्राप्त हुई थी। इस पत्र को लिखने के पीछे पौलुस का उद्देश्य था कि कलीसिया की दुर्बलताओं के बारे में उन्हें निर्देश दे और उसका पुनरूद्धार करे और उनके अनुचित अभ्यास जैसे कलीसिया में विभाजन आदि की प्रवृत्ति को दूर करे (1 कुरि. 1:10-4:21)। पुनरूत्थान के बारे में उनमें जो भ्रम उपजाया गया था उसे भी दूर करे। (1 कुरि. 15) तथा अनैतिकता के विरुद्ध अपना निर्णय दे (1 कुरि. 5, 6:12-20)। प्रभु भोज के अपमान को भी सुधारे (1 कुरि. 11:17-34)। कुरिन्थ की कलीसिया को वरदान प्राप्त थे (1:4-7)। परन्तु उनमें परिपक्वता एवं आत्मिकता की कमी थी (3:1-4)। अतः पौलुस ने एक महत्त्वपूर्ण आदर्श स्थापित किया कि कलीसिया में पाप के साथ क्या किया जाये। कलीसिया में विभाजनों तथा अनैतिकता को अनदेखा करने की अपेक्षा पौलुस ने सीधा उसका समाधान किया।
मूल विषय
विश्वासियों का चरित्र
रूपरेखा
1. प्रस्तावना — 1:1-9
2. कुरिन्थुस की कलीसिया में विभाजन — 1:10-4:21
3. नैतिकता एवं सदाचार सम्बंधित फूट — 5:1-6:20
4. विवाह के सिद्धान्त — 7:1-40
5. प्रेरितों से सम्बंधित — 8:1-11:1
6. आराधना के निर्देश — 11:2-34
7. आत्मिक उपहार — 12:1-14:40
8. पुनरूत्थान की धर्मशिक्षा — 15:1-16:24
1
अभिवादन
1 पौलुस की ओर से जो परमेश्वर की इच्छा*परमेश्वर की इच्छा: से मनुष्य के द्वारा नियुक्ति, या प्राधिकारी नहीं। से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया और भाई सोस्थिनेस की ओर से। 2 परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है, अर्थात् उनके नाम जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम से प्रार्थना करते हैं।
3 हमारे पिता परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे।
पौलुस का परमेश्वर को धन्यवाद
4 मैं तुम्हारे विषय में अपने परमेश्वर का धन्यवाद सदा करता हूँ, इसलिए कि परमेश्वर का यह अनुग्रह तुम पर मसीह यीशु में हुआ, 5 कि उसमें होकर तुम हर बात में अर्थात् सारे वचन और सारे ज्ञान में धनी किए गए। 6 कि मसीह की गवाही तुम में पक्की निकली। 7 यहाँ तक कि किसी वरदान में तुम्हें घटी नहीं, और तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रगट होने की प्रतीक्षा करते रहते हो। 8 वह तुम्हें अन्त तक दृढ़ भी करेगा, कि तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के दिन में निर्दोष ठहरो। 9 परमेश्वर विश्वासयोग्य है†परमेश्वर विश्वासयोग्य है: अर्थात्, परमेश्वर विश्वासयोग्य और स्थिर है और अपने वादों का पालन करता है।; जिसने तुम को अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह की संगति में बुलाया है। (व्यव. 7:9)
कुरिन्थुस की कलीसिया में विभाजन
10 हे भाइयों, मैं तुम से यीशु मसीह जो हमारा प्रभु है उसके नाम के द्वारा विनती करता हूँ, कि तुम सब एक ही बात कहो और तुम में फूट न हो, परन्तु एक ही मन और एक ही मत होकर मिले रहो। 11 क्योंकि हे मेरे भाइयों, खलोए के घराने के लोगों ने मुझे तुम्हारे विषय में बताया है, कि तुम में झगड़े हो रहे हैं। 12 मेरा कहना यह है, कि तुम में से कोई तो अपने आपको “पौलुस का,” कोई “अपुल्लोस का,” कोई “कैफा का,” कोई “मसीह का” कहता है। 13 क्या मसीह बँट गया? क्या पौलुस तुम्हारे लिये क्रूस पर चढ़ाया गया? या तुम्हें पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला? 14 मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ, कि क्रिस्पुस और गयुस को छोड़, मैंने तुम में से किसी को भी बपतिस्मा नहीं दिया। 15 कहीं ऐसा न हो, कि कोई कहे, कि तुम्हें मेरे नाम पर बपतिस्मा मिला। 16 और मैंने स्तिफनास के घराने को भी बपतिस्मा दिया; इनको छोड़, मैं नहीं जानता कि मैंने और किसी को बपतिस्मा दिया। 17 क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को नहीं, वरन् सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी मनुष्यों के शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।
मसीह की शक्ति और परमेश्वर का ज्ञान
18 क्योंकि क्रूस की कथा नाश होनेवालों के निकट मूर्खता है, परन्तु हम उद्धार पानेवालों के निकट परमेश्वर की सामर्थ्य है। 19 क्योंकि लिखा है,
“मैं ज्ञानवानों के ज्ञान को नाश करूँगा,
और समझदारों की समझ को तुच्छ कर दूँगा।” (यशा. 29:14)
20 कहाँ रहा ज्ञानवान? कहाँ रहा शास्त्री? कहाँ रहा इस संसार का विवादी? क्या परमेश्वर ने संसार के ज्ञान को मूर्खता नहीं ठहराया? (रोम. 1:22) 21 क्योंकि जब परमेश्वर के ज्ञान के अनुसार संसार ने ज्ञान से परमेश्वर को न जाना तो परमेश्वर को यह अच्छा लगा, कि इस प्रचार की मूर्खता के द्वारा विश्वास करनेवालों को उद्धार दे। 22 यहूदी तो चिन्ह चाहते हैं, और यूनानी ज्ञान की खोज में हैं, 23 परन्तु हम तो उस क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह का प्रचार करते हैं जो यहूदियों के निकट ठोकर का कारण, और अन्यजातियों के निकट मूर्खता है; 24 परन्तु जो बुलाए हुए हैं क्या यहूदी, क्या यूनानी, उनके निकट मसीह परमेश्वर की सामर्थ्य, और परमेश्वर का ज्ञान है। 25 क्योंकि परमेश्वर की मूर्खता‡क्योंकि परमेश्वर की मूर्खता: वह जो परमेश्वर नियुक्त करता है, अपेक्षा करता है, आज्ञा देता है, काम करता है, इत्यादि, यह लोगों के सम्मुख मूर्खतापूर्ण लगता है। मनुष्यों के ज्ञान से ज्ञानवान है; और परमेश्वर की निर्बलता मनुष्यों के बल से बहुत बलवान है।
केवल प्रभु में घमण्ड
26 हे भाइयों, अपने बुलाए जाने को तो सोचो, कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान, और न बहुत सामर्थी, और न बहुत कुलीन बुलाए गए। 27 परन्तु परमेश्वर ने जगत के मूर्खों§जगत के मूर्खों: वह बातें जो लोगों के बीच मूर्ख लगती हैं। को चुन लिया है, कि ज्ञानियों को लज्जित करे; और परमेश्वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे। 28 और परमेश्वर ने जगत के नीचों और तुच्छों को, वरन् जो हैं भी नहीं उनको भी चुन लिया, कि उन्हें जो हैं, व्यर्थ ठहराए। 29 ताकि कोई प्राणी परमेश्वर के सामने घमण्ड न करने पाए। 30 परन्तु उसी की ओर से तुम मसीह यीशु में हो, जो परमेश्वर की ओर से हमारे लिये ज्ञान ठहरा अर्थात् धार्मिकता, और पवित्रता, और छुटकारा। (इफि. 1:7, रोम. 8:1) 31 ताकि जैसा लिखा है, वैसा ही हो, “जो घमण्ड करे वह प्रभु में घमण्ड करे।” (2 कुरि. 10:17)
*1:1 परमेश्वर की इच्छा: से मनुष्य के द्वारा नियुक्ति, या प्राधिकारी नहीं।
†1:9 परमेश्वर विश्वासयोग्य है: अर्थात्, परमेश्वर विश्वासयोग्य और स्थिर है और अपने वादों का पालन करता है।
‡1:25 क्योंकि परमेश्वर की मूर्खता: वह जो परमेश्वर नियुक्त करता है, अपेक्षा करता है, आज्ञा देता है, काम करता है, इत्यादि, यह लोगों के सम्मुख मूर्खतापूर्ण लगता है।
§1:27 जगत के मूर्खों: वह बातें जो लोगों के बीच मूर्ख लगती हैं।