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सात विपत्तियां लिए हुए सात स्वर्गदूत
तब मैंने स्वर्ग में एक अद्भुत और आश्चर्यजनक दृश्य देखा: सात स्वर्गदूत सात अंतिम विपत्तियां लिए हुए थे—अंतिम इसलिये कि इनके साथ परमेश्वर के क्रोध का अंत हो जाता है. तब मुझे ऐसा अहसास हुआ मानो मैं एक कांच की झील को देख रहा हूं, जिसमें आग मिला दी गई हो. मैंने इस झील के तट पर उन्हें खड़े हुए देखा, जिन्होंने उस हिंसक पशु, उसकी मूर्ति तथा उसके नाम की संख्या पर विजय प्राप्‍त की थी. इनके हाथों में परमेश्वर द्वारा दी हुई वीणा थी. वे परमेश्वर के दास मोशेह तथा मेमने का गीत गा रहे थे:
“अद्भुत और असाधारण काम हैं आपके,
प्रभु सर्वशक्तिमान परमेश्वर.
धर्मी और सच्चे हैं उद्देश्य आपके,
राष्ट्रों के राजन.
कौन है, प्रभु, जिसमें आपके प्रति श्रद्धा न होगी,
कौन है, जो आपकी महिमा न करेगा?
मात्र आप ही हैं पवित्र.
सभी राष्ट्र आकर
आपका धन्यवाद करेंगे,
क्योंकि आपके न्याय के कार्य प्रकट हो चुके हैं.”* 15:4 स्तोत्र 111:2, 3; व्यव 32:4; येरे 10:7; स्तोत्र 86:9; 98:2
इसके बाद मैंने देखा कि स्वर्ग में मंदिर, जो साक्ष्यों का तंबू है, खोल दिया गया. मंदिर में से वे सातों स्वर्गदूत, जो सात विपत्तियां लिए हुए थे, बाहर निकले. वे मलमल के स्वच्छ उज्जवल वस्त्र धारण किए हुए थे तथा उनकी छाती पर सोने की कमरबंध थी. तब चार जीवित प्राणियों में से एक ने उन सात स्वर्गदूतों को सनातन परमेश्वर के क्रोध से भरे सात सोने के कटोरे दे दिए. मंदिर परमेश्वर की आभा तथा सामर्थ्य के धुएं से भर गया और उस समय तक मंदिर में कोई भी प्रवेश न कर सका, जब तक उन सातों स्वर्गदूतों द्वारा उंडेली गई सातों विपत्तियां समाप्‍त न हो गईं.

*15:4 15:4 स्तोत्र 111:2, 3; व्यव 32:4; येरे 10:7; स्तोत्र 86:9; 98:2