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मसीहक शरीरक एकता और वृद्धि
एहि सभ बातक कारणेँ हम, जे प्रभुक लेल कैदी छी, अहाँ सभ सँ अनुरोध करैत छी जे, जाहि उद्देश्‍य सँ परमेश्‍वर अहाँ सभ केँ हुनकर लोक होयबाक लेल बजौलनि, ताहि उद्देश्‍यक अनुरूप जीवन व्‍यतीत करू। पूर्ण रूप सँ विनम्र भऽ कऽ कोमलताक संग एक-दोसराक संग धैर्य राखू। प्रेम सँ एक-दोसराक संग सहनशील होउ। एक-दोसराक संग मेल सँ रहि कऽ ओहि एकता केँ कायम रखबाक प्रयत्‍न करैत रहू जे पवित्र आत्‍मा प्रदान करैत छथि। मसीहक शरीर एके होइत अछि, और परमेश्‍वरक आत्‍मा सेहो एके छथि—जहिना अहाँ सभ जखन बजाओल गेलहुँ तँ एके आशा मे सहभागी होयबाक लेल बजाओल गेलहुँ। एके प्रभु छथि, एके विश्‍वास अछि, और एके बपतिस्‍मा। एकेटा छथि जे अपना सभ गोटेक परमेश्‍वर और पिता छथि, अपना सभ गोटेक उपर छथि, अपना सभ गोटेक माध्‍यम सँ काज करैत छथि, और अपना सभ गोटेक हृदय मे वास करैत छथि।
मुदा अपना सभ केँ भेटल वरदान अलग-अलग अछि—मसीह जाहि रूप मे बाँटऽ चाहलनि, ताहि अनुसारेँ अपना सभ मे सँ हर एक केँ कृपाक विशेष वरदान देल गेल अछि। धर्मशास्‍त्र ई बात कहितो अछि, जेना लिखल अछि जे,
“ओ जखन ऊँच स्‍थान पर चढ़लाह,
तँ संग मे बन्‍दीक समूह लऽ गेलाह,
आ लोक केँ उपहार देलनि।”*4:8 भजन 68:18
जखन लिखल अछि जे, “ओ चढ़लाह”, तँ तकर अर्थ की भेल? ओकर अर्थ ई अछि जे ओ पहिने नीचाँ, पृथ्‍वी पर उतरल छलाह।4:9 वा, “पहिने पृथ्‍वीक निचला भाग सभ मे उतरल छलाह।” 10 जे नीचाँ उतरलाह, सैह छथि जे आब ऊपर चढ़लाह—समस्‍त आकाशो सँ बहुत उपर, जाहि सँ ओ सम्‍पूर्ण सृष्‍टि केँ परिपूर्णता धरि लऽ जा सकथि।4:10 वा, “जाहि सँ ओ सम्‍पूर्ण सृष्‍टि केँ भरथि”
11 वैह विभिन्‍न वरदान बँटलनि—किछु लोक केँ मसीह-दूत होयबाक वरदान देलथिन, किछु लोक केँ परमेश्‍वरक प्रवक्‍ता होयबाक, किछु लोक केँ शुभ समाचारक प्रचार करऽ वला होयबाक, आ किछु लोक केँ मण्‍डलीक देख-रेख करऽ वला§4:11 अक्षरशः “चरबाह” और शिक्षक होयबाक वरदान देलथिन। 12 ई वरदान सभ देबऽ मे मसीहक उद्देश्‍य ई छलनि जे एहि सभ द्वारा परमेश्‍वरक लोक केँ सेवा-काज सभ करबाक लेल तैयार कयल जाय जाहि सँ हुनकर देह मजगूत होनि। 13 एहि तरहेँ अपना सभ केओ संग-संग बढ़ि कऽ, विश्‍वास मे और परमेश्‍वरक पुत्रक ज्ञान मे एक भऽ जायब, और पूर्ण सिद्धता, अर्थात् मसीहक पूर्णता, धरि पहुँचब। 14 एहि प्रकारेँ अपना सभ छोट बच्‍चा नहि रहि जायब जे प्रत्‍येक शिक्षाक झोंक सँ एम्‍हर-ओम्‍हर फेकाइत रही आ धोखा देबऽ वला धूर्त लोकक छल-प्रपंच सँ बनाओल जाल मे फँसि कऽ बहकाओल जाइ। 15 बल्‍कि प्रेमक संग सत्‍य बजैत अपना सभ बढ़ि कऽ सभ बात मे तिनका जकाँ बनैत जायब जे शरीरक सिर छथि, अर्थात्‌ मसीह। 16 हुनके द्वारा पूरा देह एक संग जुटल रहैत अछि, देहक सभ अलग-अलग अंग प्रत्‍येक जोड़क सहायता सँ एक-दोसर सँ संयुक्‍त रहैत अछि, और एहि तरहेँ जखन प्रत्‍येक अंग ठीक सँ अपन काज करैत अछि तँ पूरा देह बढ़ि कऽ प्रेम मे अपना केँ मजगूत करैत अछि।
नव स्‍वभावक अनुरूप आचरण
17 तेँ अहाँ सभ केँ हम ई कहऽ चाहैत छी आ प्रभु केँ साक्षी राखि एहि बात पर जोर दैत छी जे, आब सँ तकरा सभ जकाँ आचरण नहि करू जे सभ परमेश्‍वर केँ नहि चिन्‍हऽ वला जाति सभक लोक अछि। ओकरा सभक सोच-विचार निरर्थक छैक, 18 ओकरा सभक बुद्धि अन्‍हार सँ भरल छैक और ओ सभ ओहि जीवन सँ वंचित अछि जे परमेश्‍वर प्रदान करैत छथि। एकर कारण ई अछि जे ओ सभ जिद्दी बनि कऽ अज्ञान भऽ गेल अछि। 19 ओकरा सभक विवेक सुन्‍न भऽ गेल छैक, ओकरा सभ केँ कोनो लाजे नहि छैक। ओ सभ जानि-बुझि कऽ शारीरिक इच्‍छाक दास बनल अछि, आ सभ तरहक गन्‍दा काज करैत, ओहने-ओहने आओर काज करबाक लेल लालायित रहैत अछि।
20 मुदा अहाँ सभ जखन मसीह केँ चिन्‍हलहुँ तँ हुनका सँ एहि प्रकारक जीवन बितयबाक बात नहि सिखलहुँ। 21 अहाँ सभ अवश्‍य हुनका विषय मे सुनने छी और हुनका सम्‍बन्‍ध मे शिक्षा पौने छी, जे शिक्षा ओहि सत्‍यक अनुसार अछि जे यीशु मे प्रगट भेल। 22 अहाँ सभ केँ ई सिखाओल गेल जे अपन पुरान स्‍वभाव, जे अहाँ सभक पहिलुका चालि-चलन सँ स्‍पष्‍ट होइत छल, तकरा अहाँ सभ केँ त्‍यागि देबाक अछि, किएक तँ ओ स्‍वभाव धोखा देबऽ वला अभिलाषा सभक कारणेँ बिगड़ैत जा रहल अछि। 23 अहाँ सभ केँ ई सिखाओल गेल जे पूर्ण रूप सँ आत्‍मा और विचार मे नव लोक बनबाक अछि, 24 और नवका स्‍वभाव धारण करबाक अछि। नवका स्‍वभाव परमेश्‍वरक स्‍वरूप मे रचल गेल अछि आ ओहि धार्मिकता और पवित्रता मे व्‍यक्‍त होइत अछि जे सत्‍य पर आधारित अछि।
25 एहि लेल, अहाँ सभ मे सँ प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति झूठ बजनाइ छोड़ू, और एक-दोसर सँ सत्‍य बाजू, कारण, अपना सभ एके शरीरक अंग भऽ कऽ एक-दोसराक छी। 26 “जँ क्रोधित भऽ जाइ, तँ अपना क्रोध केँ पापक कारण नहि बनऽ दिअ”*4:26 भजन 4:4 —सूर्य डुबऽ सँ पहिनहि अपना क्रोध सँ मुक्‍त होउ। 27 शैतान केँ अवसर नहि दिऔक!
28 जे चोरी करैत अछि, से आब चोरी नहि करओ, बल्‍कि अपना हाथ सँ इमानदारीपूर्बक परिश्रम करओ, जाहि सँ ओ आवश्‍यकता मे पड़ल लोक सभक मदति कऽ सकय।
29 अहाँ सभक मुँह सँ कोनो हानि पहुँचाबऽ वला बात नहि निकलय, बल्‍कि एहन बात जे दोसराक उन्‍नतिक लेल होअय और अवसरक अनुरूप होअय, जाहि सँ ओहि सँ सुननिहारक हित होयतैक। 30 परमेश्‍वरक पवित्र आत्‍मा केँ दुखी नहि करिऔन, किएक तँ पवित्र आत्‍मा स्‍वयं अहाँ सभ पर परमेश्‍वरक लगाओल छाप छथि जे एहि बात केँ पक्‍का करैत अछि जे छुटकाराक दिन मे अहूँ सभक छुटकारा होयत। 31 अहाँ सभ हर तरहक कटुता, क्रोध, तामस, चिकरनाइ, दोसराक निन्‍दा कयनाइ और दुष्‍ट भावना केँ अपना सँ दूर करू। 32 एक-दोसराक प्रति दयालु बनू, एक-दोसर केँ करुणा देखाउ, और जहिना परमेश्‍वर मसीहक कारणेँ अहाँ सभ केँ क्षमा कऽ देलनि तहिना अहूँ सभ एक-दोसर केँ क्षमा करू।

*4:8 4:8 भजन 68:18

4:9 4:9 वा, “पहिने पृथ्‍वीक निचला भाग सभ मे उतरल छलाह।”

4:10 4:10 वा, “जाहि सँ ओ सम्‍पूर्ण सृष्‍टि केँ भरथि”

§4:11 4:11 अक्षरशः “चरबाह”

*4:26 4:26 भजन 4:4