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उत्पीड़कों से राहत के लिए प्रार्थना 
 
आसाप का मश्कील 
 
1 हे परमेश्वर, तूने हमें क्यों सदा के लिये छोड़ दिया है?  
तेरी कोपाग्नि का धुआँ तेरी चराई की भेड़ों के विरुद्ध क्यों उठ रहा है?   
2 अपनी मण्डली को जिसे तूने प्राचीनकाल में मोल लिया था,  
और अपने निज भाग का गोत्र होने के लिये छुड़ा लिया था,  
और इस सिय्योन पर्वत को भी, जिस पर तूने वास किया था, स्मरण कर! (व्यव. 32:9, यिर्म. 10:16, प्रेरि. 20:28)    
3 अपने डग अनन्त खण्डहरों की ओर बढ़ा;  
अर्थात् उन सब बुराइयों की ओर जो शत्रु ने पवित्रस्थान में की हैं।   
4 तेरे द्रोही तेरे पवित्रस्थान के बीच गर्जते रहे हैं;  
उन्होंने अपनी ही ध्वजाओं को चिन्ह ठहराया है।   
5 वे उन मनुष्यों के समान थे  
जो घने वन के पेड़ों पर कुल्हाड़े चलाते हैं;   
6 और अब वे उस भवन की नक्काशी को,  
कुल्हाड़ियों और हथौड़ों से बिल्कुल तोड़े डालते हैं।   
7 उन्होंने तेरे पवित्रस्थान को आग में झोंक दिया है,  
और तेरे नाम के निवास को गिराकर अशुद्ध कर डाला है।   
8 उन्होंने मन में कहा है, “हम इनको एकदम दबा दें।”  
उन्होंने इस देश में परमेश्वर के सब सभास्थानों को फूँक दिया है।   
9 हमको अब परमेश्वर के कोई अद्भुत चिन्ह दिखाई नहीं देते;  
अब कोई नबी नहीं रहा,  
न हमारे बीच कोई जानता है कि कब तक यह दशा रहेगी।   
10 हे परमेश्वर द्रोही कब तक नामधराई करता रहेगा?  
क्या शत्रु, तेरे नाम की निन्दा सदा करता रहेगा?   
11 तू अपना दाहिना हाथ क्यों रोके रहता है?  
उसे अपने पंजर से निकालकर उनका अन्त कर दे।   
12 परमेश्वर तो प्राचीनकाल से मेरा राजा है,  
वह पृथ्वी पर उद्धार के काम करता आया है।   
13 तूने तो अपनी शक्ति से समुद्र को दो भागकर दिया;  
तूने तो समुद्री अजगरों के सिरों को फोड़ दिया।   
14 तूने तो लिव्यातान के सिरों को टुकड़े-टुकड़े करके जंगली जन्तुओं को खिला दिए।   
15 तूने तो सोता खोलकर जल की धारा बहाई,  
तूने तो बारहमासी नदियों को सूखा डाला।   
16 दिन तेरा है रात भी तेरी है;  
सूर्य और चन्द्रमा को तूने स्थिर किया है।   
17 तूने तो पृथ्वी की सब सीमाओं को ठहराया;  
धूपकाल और सर्दी दोनों तूने ठहराए हैं।   
18 हे यहोवा, स्मरण कर कि शत्रु ने नामधराई की है,  
और मूर्ख लोगों ने तेरे नाम की निन्दा की है।   
19 अपनी पिण्डुकी के प्राण को वन पशु के वश में न कर;  
अपने दीन जनों को सदा के लिये न भूल   
20 अपनी वाचा की सुधि ले;  
क्योंकि देश के अंधेरे स्थान अत्याचार के घरों से भरपूर हैं।   
21 पिसे हुए जन को अपमानित होकर लौटना न पड़े;  
दीन और दरिद्र लोग तेरे नाम की स्तुति करने पाएँ। (भज. 103:6)    
22 हे परमेश्वर, उठ, अपना मुकद्दमा आप ही लड़;  
तेरी जो नामधराई मूर्ख द्वारा दिन भर होती रहती है, उसे स्मरण कर।   
23 अपने द्रोहियों का बड़ा बोल न भूल,  
तेरे विरोधियों का कोलाहल तो निरन्तर उठता रहता है।