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पृथ्वी परक नहि, स्वर्गीय वस्तु सभ पर मोन लगाउ
1 एहि लेल, जँ अहाँ सभ मसीहक संग जीवित कयल गेल छी, तँ ओहन बात सभ पर मोन लगाउ जे स्वर्ग सँ सम्बन्ध रखैत अछि, जतऽ मसीह परमेश्वरक दहिना कात मे विराजमान छथि। 2 अपन ध्यान पृथ्वी परक वस्तु सभ पर नहि, बल्कि स्वर्गीय वस्तु सभ पर लगाउ, 3 किएक तँ जहाँ तक अहाँ सभक पुरान जीवनक बात अछि, अहाँ सभ तँ मरि गेल छी आ अहाँ सभक नव जीवन आब मसीहक संग परमेश्वर मे नुकायल अछि। 4 मसीहे अहाँ सभक*3:4 किछु हस्तलेख सभ मे, “अहाँ सभक”क स्थान पर “अपना सभक” पाओल जाइत अछि। जीवन छथि, और ओ जहिया फेर औताह, तहिया अहूँ सभ हुनका महिमाक वैभव मे सहभागी होयब आ ई बात प्रगट होयत जे अहाँ सभ हुनके लोक छिऐन।
नव स्वभावक अनुसार जीनाइ
5 एहि लेल, अहाँ सभ मे जे किछु अहाँ सभक पापी मानवीय स्वभाव सँ सम्बन्ध रखैत अछि, तकरा नष्ट कऽ दिअ, अर्थात्, अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध, अपवित्र विचार-व्यवहार, शारीरिक काम-वासना, अधलाह बातक लालसा, आ लोभ जे मूर्तिपूजाक बराबरि बात अछि। 6 एहि बात सभक कारणेँ†3:6 किछु अति प्राचीन हस्तलेख सभ मे एहि तरहेँ लिखल अछि, “...कारणेँ आज्ञा नहि माननिहार सभ पर...” परमेश्वरक प्रकोप अबैत अछि। 7 अहाँ सभ जखन पहिने एहि प्रकारक पापमय जीवन व्यतीत करैत छलहुँ, तँ अहूँ सभ यैह सभ करैत छलहुँ। 8 मुदा आब अहाँ सभ एहि बात सभ केँ, अर्थात् तामस, क्रोध, दुष्ट भावना, दोसराक निन्दा कयनाइ आ गारि बजनाइ, छोड़ि दिअ। 9 एक-दोसर सँ झूठ नहि बाजू, किएक तँ अहाँ सभ अपन पुरान स्वभाव केँ ओकर अधलाह आचरण समेत त्यागि देने छी, 10 आ नव स्वभाव केँ धारण कऽ लेने छी। ई नव स्वभाव जँ-जँ अपना सृष्टिकर्ताक स्वरूपक अनुसार नव बनैत जाइत अछि, तँ-तँ सत्य ज्ञान मे बढ़ैत जाइत अछि। 11 एहि मे कोनो भेद नहि रहि गेल अछि—एहि मे ने केओ यूनानी जातिक अछि आ ने यहूदी, ने केओ खतना कराओल अछि आ ने खतना नहि कराओल, ने केओ अशिक्षित वा जंगली जातिक अछि, ने केओ गुलाम अछि आ ने स्वतन्त्र। एतऽ मसीहे सभ किछु छथि आ अपन सभ लोक मे वास करैत छथि।
12 तेँ अहाँ सभ परमेश्वरक चुनल लोक, हुनकर पवित्र और प्रिय लोक सभ भऽ कऽ, दयालुता, करुणा, नम्रता, कोमलता आ सहनशीलता केँ धारण करू। 13 एक-दोसराक संग सहनशील होउ, आ जँ किनको ककरो सँ सिकायत होअय, तँ एक-दोसर केँ क्षमा करू। जहिना प्रभु अहाँ सभ केँ क्षमा कऽ देलनि, तहिना अहूँ सभ क्षमा करू। 14 आ सभ सँ पैघ बात ई अछि जे आपस मे प्रेम भाव बनौने रहू। प्रेम सभ केँ एकता मे बान्हि कऽ पूर्णता धरि पहुँचा दैत अछि। 15 मसीहक शान्ति अहाँ सभक हृदय मे राज्य करैत रहय, कारण, अहाँ सभ एक शरीरक अंग सभ भऽ कऽ मेल सँ रहबाक लेल बजाओल गेल छी। अहाँ सभ धन्यवाद देनिहार बनल रहू। 16 मसीहक वचन केँ अपन परिपूर्णताक संग अहाँ सभ अपना मे निवास करऽ दिअ। पूर्ण बुद्धि-ज्ञानक संग एक-दोसर केँ शिक्षा आ चेतावनी दैत रहू, आ परमेश्वरक प्रशंसा मे भजन, स्तुति-गान आ भक्तिक गीत पूरा मोन सँ धन्यवादक संग गबैत रहू। 17 अहाँ सभ जे किछु कही वा करी, से सभ प्रभु यीशुक नाम सँ करू आ हुनका द्वारा परमेश्वर पिता केँ धन्यवाद दैत रहू।
पारिवारिक जीवन मे प्रभु केँ आदर देबऽ वला व्यवहार
18 हे स्त्री सभ, जहिना प्रभु केँ मानऽ वाली सभक लेल उचित अछि, तहिना अपन-अपन पतिक अधीन रहू। 19 हे पति लोकनि, अपन-अपन स्त्री सँ प्रेम करू आ हुनका संग कठोर व्यवहार नहि करू। 20 हौ धिआ-पुता सभ, सभ बात मे अपन माय-बाबूक आज्ञा मानह, किएक तँ एहि सँ प्रभु प्रसन्न होइत छथि। 21 यौ पिता लोकनि, अपना बच्चा सभ केँ तंग नहि करिऔक; एना नहि होअय जे ओकरा सभक साहस टुटि जाइक।
22 यौ दास सभ, एहि संसार मे जे अहाँ सभक मालिक छथि, सभ बात मे तिनकर आज्ञा मानू। मालिक केँ खुश करबाक उद्देश्य सँ, जखन ओ देखिते छथि तखने मात्र नहि, बल्कि शुद्ध मोन सँ और प्रभु पर श्रद्धा राखि कऽ आज्ञा मानू। 23 अहाँ सभ जे किछु करी, मोन लगा कऽ करू, ई मानि कऽ जे मनुष्यक लेल नहि, बल्कि प्रभुक लेल कऽ रहल छी, 24 किएक तँ अहाँ सभ जनैत छी जे, एकर प्रतिफलक रूप मे अहाँ सभ प्रभु सँ उत्तराधिकार प्राप्त करब। अहाँ सभ तँ प्रभु मसीहेक सेवा कऽ रहल छी। 25 जे अन्याय करैत अछि, से अपन अन्यायक प्रतिफल पाओत। ककरो संग पक्षपात नहि कयल जयतैक।