119
आलेफ 
  1 मुबारक हैं वह जो कामिल रफ़्तार है,  
जो ख़ुदा की शरी'अत पर 'अमल करते हैं!   
 2 मुबारक हैं वह जो उसकी शहादतों को मानते हैं,  
और पूरे दिल से उसके तालिब हैं!   
 3 उन से नारास्ती नहीं होती,  
वह उसकी राहों पर चलते हैं।   
 4 तूने अपने क़वानीन दिए हैं,  
ताकि हम दिल लगा कर उनकी मानें।   
 5 काश कि तेरे क़ानून मानने के लिए,  
मेरी चाल चलन दुरुस्त हो जाएँ!   
 6 जब मैं तेरे सब अहकाम का लिहाज़ रख्खूँगा,  
तो शर्मिन्दा न हूँगा।   
 7 जब मैं तेरी सदाक़त के अहकाम सीख लूँगा,  
तो सच्चे दिल से तेरा शुक्र अदा करूँगा।   
 8 मैं तेरे क़ानून मानूँगा;  
मुझे बिल्कुल छोड़ न दे!  
बेथ  
  9 जवान अपने चाल चलन किस तरह पाक रख्खे?  
तेरे कलाम के मुताबिक़ उस पर निगाह रखने से।   
 10 मैं पूरे दिल से तेरा तालिब हुआ हूँ:  
मुझे अपने फ़रमान से भटकने न दे।   
 11 मैंने तेरे कलाम को अपने दिल में रख लिया है  
ताकि मैं तेरे ख़िलाफ़ गुनाह न करूँ।   
 12 ऐ ख़ुदावन्द! तू मुबारक है;  
मुझे अपने क़ानून सिखा!   
 13 मैंने अपने लबों से,  
तेरे फ़रमूदा अहकाम को बयान किया।   
 14 मुझे तेरी शहादतों की राह से ऐसी ख़ुशी हुई,  
जैसी हर तरह की दौलत से होती है।   
 15 मैं तेरे क़वानीन पर ग़ौर करूँगा,  
और तेरी राहों का लिहाज़ रख्खूँगा।   
 16 मैं तेरे क़ानून में मसरूर रहूँगा;  
मैं तेरे कलाम को न भूलूँगा।  
गिमेल  
  17 अपने बन्दे पर एहसान कर ताकि मैं जिन्दा रहूँ  
और तेरे कलाम को मानता रहूँ।   
 18 मेरी आँखे खोल दे,  
ताकि मैं तेरी शरीअत के 'अजायब देखूँ।   
 19 मैं ज़मीन पर मुसाफ़िर हूँ,  
अपने फ़रमान मुझ से छिपे न रख।   
 20 मेरा दिल तेरे अहकाम के इश्तियाक में,  
हर वक़्त तड़पता रहता है।   
 21 तूने उन मला'ऊन मग़रूरों को झिड़क दिया,  
जो तेरे फ़रमान से भटकते रहते हैं।   
 22 मलामत और हिक़ारत को मुझ से दूर कर दे,  
क्यूँकि मैंने तेरी शहादतें मानी हैं।   
 23 उमरा भी बैठकर मेरे ख़िलाफ़ बातें करते रहे,  
लेकिन तेरा बंदा तेरे क़ानून पर ध्यान लगाए रहा।   
 24 तेरी शहादतें मुझे पसन्द, और मेरी मुशीर हैं।  
दाल्थ  
  25 मेरी जान ख़ाक में मिल गई:  
तू अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।   
 26 मैंने अपने चाल चलन का इज़हार किया और तूने मुझे जवाब दिया;  
मुझे अपने क़ानून की ता'लीम दे।   
 27 अपने क़वानीन की राह मुझे समझा दे,  
और मैं तेरे 'अजायब पर ध्यान करूँगा।   
 28 ग़म के मारे मेरी जान घुली जाती है;  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ताक़त दे।   
 29 झूट की राह से मुझे दूर रख,  
और मुझे अपनी शरी'अत इनायत फ़रमा।   
 30 मैंने वफ़ादारी की राह इख़्तियार की है,  
मैंने तेरे अहकाम अपने सामने रख्खे हैं।   
 31 मैं तेरी शहादतों से लिपटा हुआ हूँ,  
ऐ ख़ुदावन्द! मुझे शर्मिन्दा न होने दे!   
 32 जब तू मेरा हौसला बढ़ाएगा,  
तो मैं तेरे फ़रमान की राह में दौड़ूँगा।  
हे  
  33 ऐ ख़ुदावन्द, मुझे अपने क़ानून की राह बता,  
और मैं आख़िर तक उस पर चलूँगा।   
 34 मुझे समझ 'अता कर और मैं तेरी शरी'अत पर चलूँगा,  
बल्कि मैं पूरे दिल से उसको मानूँगा।   
 35 मुझे अपने फ़रमान की राह पर चला,  
क्यूँकि इसी में मेरी ख़ुशी है।   
 36 मेरे दिल की अपनी शहादतों की तरफ़ रुजू' दिला;  
न कि लालच की तरफ़।   
 37 मेरी आँखों को बेकारी पर नज़र करने से बाज़ रख,  
और मुझे अपनी राहों में ज़िन्दा कर।   
 38 अपने बन्दे के लिए अपना वह क़ौल पूरा कर,  
जिस से तेरा खौफ़ पैदा होता है।   
 39 मेरी मलामत को जिस से मैं डरता हूँ दूर कर दे;  
क्यूँकि तेरे अहकाम भले हैं।   
 40 देख, मैं तेरे क़वानीन का मुश्ताक़ रहा हूँ;  
मुझे अपनी सदाक़त से ज़िन्दा कर।  
वाव  
  41 ऐ ख़ुदावन्द, तेरे क़ौल के मुताबिक़,  
तेरी शफ़क़त और तेरी नजात मुझे नसीब हों,   
 42 तब मैं अपने मलामत करने वाले को जवाब दे सकूँगा,  
क्यूँकि मैं तेरे कलाम पर भरोसा रखता हूँ।   
 43 और हक़ बात को मेरे मुँह से हरगिज़ जुदा न होने दे,  
क्यूँकि मेरा भरोसा तेरे अहकाम पर है।   
 44 फिर मैं हमेशा से हमेशा तक,  
तेरी शरी'अत को मानता रहूँगा   
 45 और मैं आज़ादी से चलूँगा,  
क्यूँकि मैं तेरे क़वानीन का तालिब रहा हूँ।   
 46 मैं बादशाहों के सामने तेरी शहादतों का बयान करूँगा,  
और शर्मिन्दा न हूँगा।   
 47 तेरे फ़रमान मुझे अज़ीज़ हैं,  
मैं उनमें मसरूर रहूँगा।   
 48 मैं अपने हाथ तेरे फ़रमान की तरफ़ जो मुझे 'अज़ीज़ है उठाऊँगा,  
और तेरे क़ानून पर ध्यान करूँगा।  
ज़ैन  
  49 जो कलाम तूने अपने बन्दे से किया उसे याद कर,  
क्यूँकि तूने मुझे उम्मीद दिलाई है।   
 50 मेरी मुसीबत में यही मेरी तसल्ली है,  
कि तेरे कलाम ने मुझे ज़िन्दा किया   
 51 मग़रूरों ने मुझे बहुत ठठ्ठों में उड़ाया,  
तोभी मैंने तेरी शरी'अत से किनारा नहीं किया   
 52 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरे क़दीम अहकाम को याद करता,  
और इत्मीनान पाता रहा हूँ।   
 53 उन शरीरों की वजह से जो तेरी शरी'अत को छोड़ देते हैं,  
मैं सख़्त ग़ुस्से में आ गया हूँ।   
 54 मेरे मुसाफ़िर ख़ाने में,  
तेरे क़ानून मेरी हम्द रहे हैं।   
 55 ऐ ख़ुदावन्द, रात को मैंने तेरा नाम याद किया है,  
और तेरी शरी'अत पर 'अमल किया है।   
 56 यह मेरे लिए इसलिए हुआ,  
कि मैंने तेरे क़वानीन को माना।  
हेथ  
  57 ख़ुदावन्द मेरा बख़रा है;  
मैंने कहा है मैं तेरी बातें मानूँगा।   
 58 मैं पूरे दिल से तेरे करम का तलब गार हुआ;  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझ पर रहम कर!   
 59 मैंने अपनी राहों पर ग़ौर किया,  
और तेरी शहादतों की तरफ़ अपने कदम मोड़े।   
 60 मैंने तेरे फ़रमान मानने में,  
जल्दी की और देर न लगाई।   
 61 शरीरों की रस्सियों ने मुझे जकड़ लिया,  
लेकिन मैं तेरी शरी'अत को न भूला।   
 62 तेरी सदाकत के अहकाम के लिए,  
मैं आधी रात को तेरा शुक्र करने को उठूँगा।   
 63 मैं उन सबका साथी हूँ जो तुझ से डरते हैं,  
और उनका जो तेरे क़वानीन को मानते हैं।   
 64 ऐ ख़ुदावन्द, ज़मीन तेरी शफ़क़त से मा'मूर है;  
मुझे अपने क़ानून सिखा!  
टेथ  
  65 ऐ ख़ुदावन्द! तूने अपने कलाम के मुताबिक़,  
अपने बन्दे के साथ भलाई की है।   
 66 मुझे सही फ़र्क़ और 'अक़्ल सिखा,  
क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान पर ईमान लाया हूँ।   
 67 मैं मुसीबत उठाने से पहले गुमराह था;  
लेकिन अब तेरे कलाम को मानता हूँ।   
 68 तू भला है और भलाई करता है;  
मुझे अपने क़ानून सिखा।   
 69 मग़रूरों ने मुझ पर बहुतान बाँधा है;  
मैं पूरे दिल से तेरे क़वानीन को मानूँगा।   
 70 उनके दिल चिकनाई से फ़र्बा हो गए,  
लेकिन मैं तेरी शरी'अत में मसरूर हूँ।   
 71 अच्छा हुआ कि मैंने मुसीबत उठाई,  
ताकि तेरे क़ानून सीख लूँ।   
 72 तेरे मुँह की शरी'अत मेरे लिए,  
सोने चाँदी के हज़ारों सिक्कों से बेहतर है।  
योध  
  73 तेरे हाथों ने मुझे बनाया और तरतीब दी;  
मुझे समझ 'अता कर ताकि तेरे फ़रमान सीख लें।   
 74 तुझ से डरने वाले मुझे देख कर  
इसलिए कि मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।   
 75 ऐ ख़ुदावन्द, मैं तेरे अहकाम की सदाक़त को जानता हूँ,  
और यह कि वफ़ादारी ही से तूने मुझे दुख; में डाला।   
 76 उस कलाम के मुताबिक़ जो तूनेअपने बन्दे से किया,  
तेरी शफ़क़त मेरी तसल्ली का ज़रिया' हो।   
 77 तेरी रहमत मुझे नसीब हो ताकि मैं ज़िन्दा रहूँ।  
क्यूँकि तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी है।   
 78 मग़रूर शर्मिन्दा हों, क्यूँकि उन्होंने नाहक़ मुझे गिराया,  
लेकिन मैं तेरे क़वानीन पर ध्यान करूँगा।   
 79 तुझ से डरने वाले मेरी तरफ़ रुजू हों,  
तो वह तेरी शहादतों को जान लेंगे।   
 80 मेरा दिल तेरे क़ानून मानने में कामिल रहे,  
ताकि मैं शर्मिन्दगी न उठाऊँ।  
क़ाफ  
  81 मेरी जान तेरी नजात के लिए बेताब है,  
लेकिन मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।   
 82 तेरे कलाम के इन्तिज़ार में मेरी आँखें रह गई,  
मैं यही कहता रहा कि तू मुझे कब तसल्ली देगा?   
 83 मैं उस मश्कीज़े की तरह हो गया जो धुएँ में हो,  
तोभी मैं तेरे क़ानून को नहीं भूलता।   
 84 तेरे बन्दे के दिन ही कितने हैं?  
तू मेरे सताने वालों पर कब फ़तवा देगा?   
 85 मग़रूरों ने जो तेरी शरी'अत के पैरौ नहीं,  
मेरे लिए गढ़े खोदे हैं।   
 86 तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं: वह नाहक़ मुझे सताते हैं;  
तू मेरी मदद कर!   
 87 उन्होंने मुझे ज़मीन पर से फ़नाकर ही डाला था,  
लेकिन मैंने तेरे कवानीन को न छोड़ा।   
 88 तू मुझे अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ ज़िन्दा कर,  
तो मैं तेरे मुँह की शहादत को मानूँगा।  
लामेध  
  89 ऐ ख़ुदावन्द! तेरा कलाम,  
आसमान पर हमेशा तक क़ाईम है।   
 90 तेरी वफ़ादारी नसल दर नसल है;  
तूने ज़मीन को क़याम बख़्शा और वह क़ाईम है।   
 91 वह आज तेरे अहकाम के मुताबिक़ क़ाईम हैं  
क्यूँकि सब चीजें तेरी ख़िदमत गुज़ार हैं।   
 92 अगर तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी न होती,  
तो मैं अपनी मुसीबत में हलाक हो जाता।   
 93 मैं तेरे क़वानीन को कभी न भूलूँगा,  
क्यूँकि तूने उन्ही के वसीले से मुझे ज़िन्दा किया है।   
 94 मैं तेरा ही हूँ मुझे बचा ले,  
क्यूँकि मैं तेरे क़वानीन का तालिब रहा हूँ।   
 95 शरीर मुझे हलाक करने को घात में लगे रहे,  
लेकिन मैं तेरी शहादतों पर ग़ौर करूँगा।   
 96 मैंने देखा कि हर कमाल की इन्तिहा है,  
लेकिन तेरा हुक्म बहुत वसी'अ है।  
मीम  
  97 आह! मैं तेरी शरी'अत से कैसी मुहब्बत रखता हूँ,  
मुझे दिन भर उसी का ध्यान रहता है।   
 98 तेरे फ़रमान मुझे मेरे दुश्मनों से ज़्यादा 'अक़्लमंद बनाते हैं,  
क्यूँकि वह हमेशा मेरे साथ हैं।   
 99 मैं अपने सब उस्तादों से 'अक़्लमंद हैं,  
क्यूँकि तेरी शहादतों पर मेरा ध्यान रहता है।   
 100 मैं उम्र रसीदा लोगों से ज़्यादा समझ रखता हूँ  
क्यूँकि मैंने तेरे क़वानीन को माना है।   
 101 मैंने हर बुरी राह से अपने क़दम रोक रख्खें हैं,  
ताकि तेरी शरी'अत पर 'अमल करूँ।   
 102 मैंने तेरे अहकाम से किनारा नहीं किया,  
क्यूँकि तूने मुझे ता'लीम दी है।   
 103 तेरी बातें मेरे लिए कैसी शीरीन हैं,  
वह मेरे मुँह को शहद से भी मीठी मा'लूम होती हैं!   
 104 तेरे क़वानीन से मुझे समझ हासिल होता है,  
इसलिए मुझे हर झूटी राह से नफ़रत है।  
नून  
  105 तेरा कलाम मेरे क़दमों के लिए चराग़,  
और मेरी राह के लिए रोशनी है।   
 106 मैंने क़सम खाई है और उस पर क़ाईम हूँ,  
कि तेरी सदाक़त के अहकाम पर'अमल करूँगा।   
 107 मैं बड़ी मुसीबत में हूँ। ऐ ख़ुदावन्द!  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।   
 108 ऐ ख़ुदावन्द, मेरे मुँह से रज़ा की क़ुर्बानियाँ क़ुबूल फ़रमा  
और मुझे अपने अहकाम की ता'लीम दे।   
 109 मेरी जान हमेशा हथेली पर है,  
तोभी मैं तेरी शरी'अत को नहीं भूलता।   
 110 शरीरों ने मेरे लिए फंदा लगाया है,  
तोभी मैं तेरे क़वानीन से नहीं भटका।   
 111 मैंने तेरी शहादतों को अपनी हमेशा की मीरास बनाया है,  
क्यूँकि उनसे मेरे दिल को ख़ुशी होती है।   
 112 मैंने हमेशा के लिए आख़िर तक,  
तेरे क़ानून मानने पर दिल लगाया है।  
सामेख  
  113 मुझे दो दिलों से नफ़रत है,  
लेकिन तेरी शरी'अत से मुहब्बत रखता हूँ।   
 114 तू मेरे छिपने की जगह और मेरी ढाल है;  
मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।   
 115 ऐ बदकिरदारो! मुझ से दूर हो जाओ,  
ताकि मैं अपने ख़ुदा के फ़रमान पर'अमल करूँ!   
 116 तू अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे संभाल ताकि ज़िन्दा रहूँ,  
और मुझे अपने भरोसा से शर्मिन्दगी न उठाने दे।   
 117 मुझे संभाल और मैं सलामत रहूँगा,  
और हमेशा तेरे क़ानून का लिहाज़ रखूँगा।   
 118 तूने उन सबको हक़ीर जाना है,  
जो तेरे क़ानून से भटक जाते हैं;  
क्यूँकि उनकी दग़ाबाज़ी 'बेकार है।   
 119 तू ज़मीन के सब शरीरों को मैल की तरह छाँट देता है;  
इसलिए में तेरी शहादतों को 'अज़ीज़ रखता हूँ।   
 120 मेरा जिस्म तेरे ख़ौफ़ से काँपता है,  
और मैं तेरे अहकाम से डरता हूँ।  
ऐन  
  121 मैंने 'अद्ल और इन्साफ़ किया है;  
मुझे उनके हवाले न कर जो मुझ पर ज़ुल्म करते हैं।   
 122 भलाई के लिए अपने बन्दे का ज़ामिन हो,  
मग़रूर मुझ पर ज़ुल्म न करें।   
 123 तेरी नजात और तेरी सदाक़त के कलाम के इन्तिज़ार में मेरी आँखें रह गई।   
 124 अपने बन्दे से अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ सुलूक कर,  
और मुझे अपने क़ानून सिखा।   
 125 मैं तेरा बन्दा हूँ! मुझ को समझ 'अता कर,  
ताकि तेरी शहादतों को समझ लूँ।   
 126 अब वक़्त आ गया, कि ख़ुदावन्द काम करे,  
क्यूँकि उन्होंने तेरी शरी'अत को बेकार कर दिया है।   
 127 इसलिए मैं तेरे फ़रमान को सोने से बल्कि कुन्दन से भी ज़्यादा अज़ीज़ रखता हूँ।   
 128 इसलिए मैं तेरे सब कवानीन को बरहक़ जानता हूँ,  
और हर झूटी राह से मुझे नफ़रत है।  
पे  
  129 तेरी शहादतें 'अजीब हैं,  
इसलिए मेरा दिल उनको मानता है।   
 130 तेरी बातों की तशरीह नूर बख़्शती है,  
वह सादा दिलों को 'अक़्लमन्द बनाती है।   
 131 मैं खू़ब मुँह खोलकर हाँपता रहा,  
क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान का मुश्ताक़ था।   
 132 मेरी तरफ़ तवज्जुह कर और मुझ पर रहम फ़रमा,  
जैसा तेरे नाम से मुहब्बत रखने वालों का हक़ है।   
 133 अपने कलाम में मेरी रहनुमाई कर,  
कोई बदकारी मुझ पर तसल्लुत न पाए।   
 134 इंसान के ज़ुल्म से मुझे छुड़ा ले,  
तो तेरे क़वानीन पर 'अमल करूँगा।   
 135 अपना चेहरा अपने बन्दे पर जलवागर फ़रमा,  
और मुझे अपने क़ानून सिखा।   
 136 मेरी आँखों से पानी के चश्मे जारी हैं,  
इसलिए कि लोग तेरी शरी'अत को नहीं मानते।  
सांदे  
  137 ऐ ख़ुदावन्द तू सादिक़ है,  
और तेरे अहकाम बरहक़ हैं।   
 138 तूने सदाक़त और कमाल वफ़ादारी से,  
अपनी शहादतों को ज़ाहिर फ़रमाया है।   
 139 मेरी गै़रत मुझे खा गई,  
क्यूँकि मेरे मुख़ालिफ़ तेरी बातें भूल गए।   
 140 तेरा कलाम बिल्कुल ख़ालिस है,  
इसलिए तेरे बन्दे को उससे मुहब्बत है।   
 141 मैं अदना और हक़ीर हूँ,  
तौ भी मैं तेरे क़वानीन को नहीं भूलता।   
 142 तेरी सदाक़त हमेशा की सदाक़त है,  
और तेरी शरी'अत बरहक़ है।   
 143 मैं तकलीफ़ और ऐज़ाब में मुब्तिला,  
हूँ तोभी तेरे फ़रमान मेरी ख़ुशनूदी हैं।   
 144 तेरी शहादतें हमेशा रास्त हैं;  
मुझे समझ 'अता कर तो मैं ज़िन्दा रहूँगा।  
क़ाफ  
  145 मैं पूरे दिल से दुआ करता हूँ,  
ऐ ख़ुदावन्द, मुझे जवाब दे।  
मैं तेरे क़ानून पर 'अमल करूँगा।   
 146 मैंने तुझ से दुआ की है, मुझे बचा ले,  
और मैं तेरी शहादतों को मानूँगा।   
 147 मैंने पौ फटने से पहले फ़रियाद की;  
मुझे तेरे कलाम पर भरोसा है।   
 148 मेरी आँखें रात के हर पहर से पहले खुल गई,  
ताकि तेरे कलाम पर ध्यान करूँ।   
 149 अपनी शफ़क़त के मुताबिक़ मेरी फ़रियाद सुन:  
ऐ ख़ुदावन्द! अपने अहकाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।   
 150 जो शरारत के दर पै रहते हैं, वह नज़दीक आ गए;  
वह तेरी शरी'अत से दूर हैं।   
 151 ऐ ख़ुदावन्द, तू नज़दीक है,  
और तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं।   
 152 तेरी शहादतों से मुझे क़दीम से मा'लूम हुआ,  
कि तूने उनको हमेशा के लिए क़ाईम किया है।  
रेश  
  153 मेरी मुसीबत का ख़याल करऔर मुझे छुड़ा,  
क्यूँकि मैं तेरी शरी'अत को नहीं भूलता।   
 154 मेरी वकालत कर और मेरा फ़िदिया दे:  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।   
 155 नजात शरीरों से दूर है,  
क्यूँकि वह तेरे क़ानून के तालिब नहीं हैं।   
 156 ऐ ख़ुदावन्द! तेरी रहमत बड़ी है;  
अपने अहकाम के मुताबिक़ मुझे ज़िन्दा कर।   
 157 मेरे सताने वाले और मुखालिफ़ बहुत हैं,  
तोभी मैंने तेरी शहादतों से किनारा न किया।   
 158 मैं दग़ाबाज़ों को देख कर मलूल हुआ,  
क्यूँकि वह तेरे कलाम को नहीं मानते।   
 159 ख़याल फ़रमा कि मुझे तेरे क़वानीन से कैसी मुहब्बत है!  
ऐ ख़ुदावन्द! अपनी शफ़क़त के मुताबिक मुझे ज़िन्दा कर।   
 160 तेरे कलाम का ख़ुलासा सच्चाई है,  
तेरी सदाक़त के कुल अहकाम हमेशा के हैं।  
शीन  
  161 उमरा ने मुझे बे वजह सताया है,  
लेकिन मेरे दिल में तेरी बातों का ख़ौफ़ है।   
 162 मैं बड़ी लूट पाने वाले की तरह,  
तेरे कलाम से ख़ुश हूँ।   
 163 मुझे झूट से नफ़रत और कराहियत है,  
लेकिन तेरी शरी'अत से मुहब्बत है।   
 164 मैं तेरी सदाक़त के अहकाम की वजह से,  
दिन में सात बार तेरी सिताइश करता हूँ।   
 165 तेरी शरी'अत से मुहब्बत रखने वाले मुत्मइन हैं;  
उनके लिए ठोकर खाने का कोई मौक़ा' नहीं।   
 166 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरी नजात का उम्मीदवार रहा हूँ  
और तेरे फ़रमान बजा लाया हूँ।   
 167 मेरी जान ने तेरी शहादतें मानी हैं,  
और वह मुझे बहुत 'अज़ीज़ हैं।   
 168 मैंने तेरे क़वानीन और शहादतों को माना है,  
क्यूँकि मेरे सब चाल चलन तेरे सामने हैं।  
ताव  
  169 ऐ ख़ुदावन्द! मेरी फ़रियाद तेरे सामने पहुँचे;  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे समझ 'अता कर।   
 170 मेरी इल्तिजा तेरे सामने पहुँचे,  
अपने कलाम के मुताबिक़ मुझे छुड़ा।   
 171 मेरे लबों से तेरी सिताइश हो।  
क्यूँकि तू मुझे अपने क़ानून सिखाता है।   
 172 मेरी ज़बान तेरे कलाम का हम्द गाए,  
क्यूँकि तेरे सब फ़रमान बरहक़ हैं।   
 173 तेरा हाथ मेरी मदद को तैयार है  
क्यूँकि मैंने तेरे क़वानीन इख़्तियार, किए हैं।   
 174 ऐ ख़ुदावन्द! मैं तेरी नजात का मुश्ताक़ रहा हूँ,  
और तेरी शरी'अत मेरी ख़ुशनूदी है।   
 175 मेरी जान ज़िन्दा रहे तो वह तेरी सिताइश करेगी,  
और तेरे अहकाम मेरी मदद करें।   
 176 मैं खोई हुई भेड़ की तरह भटक गया हूँ  
अपने बन्दे की तलाश कर,  
क्यूँकि मैं तेरे फ़रमान को नहीं भूलता।